Wednesday, August 26, 2009

जो गुल निगाह में महके


जो गुल निगाह में महके वो खार हो रहे

साए भी रौशनी के तलबगार हो रहे


तुमने कभी भी हमपे निगाहे करम न की

कितने भी हम तुम्हारे तलबगार हो रहे


दर्द-ओ-आलम से आगे कुछ भी न मिल सका

दिल के मुआमले सब बेकार हो रहे


मुद्दत के बाद भी खिले तो खार ही खिले

कहने को बाग़-ऐ-हसरत गुलज़ार हो रहे


किन किन उदास रातों का मैं तज़करा करूँ

तारे तुम्हारे हिज्र में अंगार हो रहे


शोलों से नफरतों की इक दिल था बुझ गया

अब क्या जो उन्हें भी अगर प्यार हो रहे


क़ैद-ऐ-ख्याल-ऐ-यार से फिर छूट न सके

नज़रें मिलाके हम तो गुनेहगार हो रहे


बैठे हैं मुद्दतों से यही जुस्तजू किए

शायद के बेवफा का दीदार हो रहे


इक उन्स जिसको त्तोड़ कर तुम खुश रहे सदा

हम आज तक उसी में गिरफ्तार हो रहे


क्या इस सियाह रात की कोई सेहर नहीं

मुद्दत से रौशनी के आजार हो रहे

Friday, August 07, 2009

मुझको वीरान अंधेरों में....


मुझको वीरान अंधेरों में पिन्हाँ रहने दो
अपनी हमदर्दी-ओ-उल्फत की अदा रहने दो

बारहा मुझसे मेरा हाल न पूछो अब तुम
दर्द अब दे ही दिया है तो दवा रहने दो

हंस दिया भी तो मेरी आँख में आंसू होंगे
मेरी आंखों में उदासी का नशा रहने दो

तुम खुशी से हर इक गाम पे कलियाँ चुनना
मुझको जज्बों के जनाजों में दबा रहने दो

पूछो न किस तरह से गुजरी है शाम-ऐ-हिज्र
आबशारों को निगाहों में थमा रहने दो

अपना एहसास मेरी जान पराया न करो
इक मेरे पास भी जीने की वजह रहने दो

बैठ जाओ मेरे पास मुझ ही में खो कर
और सदियों तक यूँ ही वक्त रुका रहने दो

अपनी जुल्फें रुख-ऐ-रोशन से हटाना न अभी
कुछ घड़ी और ज़माने पे घटा रहने दो

तोड़ कर रस्म-ऐ-जहाँ बाँहों में मेरी आए हो
खूबसूरत है बोहोत ख्वाब सजा रहने दो

मेरी उल्फत की निगाहों का भरम तो रखो
दिल को इनाम-ऐ-इबादत का गुमा रहने दो

Tuesday, August 04, 2009

कहो तो जिंदगी तुम पर लुटा दूँ


कहो तो जिंदगी तुम पर लुटा दूँ
तुम्हारे प्यार को क्यूँकर भुला दूँ

ज़रूरी है के मैं आंसू बहाऊँ
तुम्हें तनहाइयों में गर सदा दूं

अब इतना भी मुझे मायूस न कर
कहीं ख़ुद को तरस खा कर मिटा दूँ

घिरा हूँ मैं शिकस्ता कोशिशों में
उमर मैं किस तरह हंस कर बिता दूँ

बढे जाते हैं अब ग़म के अंधेरे
कहो तो इस दफा मैं घर जला दूँ

बड़े ही सख्त ये लम्हे गए हैं
क़यामत हो मैं इनको गर सुना दूँ

परस्तिश के लिए तुमको चुना है
कहो मुजरिम अगर मैं सर उठा दूँ

न हो जिन रास्तों पे साथ तेरा
क़दम उस राह पर क्यूँ कर बढ़ा दूँ

मैं मर जाऊं अगर जीना हो तुमबिन
यूँ ख़ुद को हाथ फैला कर दुआ दूँ

नही होते हो जब तुम पास मेरे
ये जी करता है हर मंज़र मिटा दूँ

अगर तुम साथ दो राह-ऐ-वफ़ा में
मैं पलकों से हर एक पत्थर हटा दूँ