Sunday, June 14, 2009

हमको कुछ जुर्म-ऐ-मोहब्बत का भरम रखना था

हमको कुछ जुर्म-ऐ-मोहब्बत का भरम रखना था
अपनी मायूस इबादत का भरम रखना था

इस लिए हमने तुझे बज्म में सजदे न किए
दुनिया वालों की शिकायत का भरम रखना था

हम ही क्या दर्द-ऐ-जुरायत को निभाते जाएँ
कुछ तुम्हें भी तो मोहब्बत का भरम रखना था

तेरे बख्शे हुए अश्कों से सजा ली रातें
हमनफस हमको इनायत का भरम रखना था

बेवफा हमने तुझे याद किया है पहरों
दिल से मंसूब रिवायत का भरम रखना था

कोई शिकवा भी नही कोई शिकायत भी नही
तुमको लाचारी-ऐ-उल्फत का भरम रखना था

अपनी मांगी तुम्हें सार्री दुआएं दे दी
इस से जायेद क्या रफाकत का भरम रखना था

फूल चाहे थे हमें खार मिले हैं तुमसे
इक ज़रा तो मेरी चाहत का भरम रखना था

हमने तन्हाई में तेरी खुशबू को बिखेरे रखा
अपने एहसास की फितरत का भरम रखना था

चंद बचे रिश्तों को भी दुनिया से तो बख्शा न गया
कुछ इन्हें भी तो अदावत का भरम रखना था

हमने हर लफ्ज़ को आंखों से बोहोत चूमा है
तेरे हाथों की इबारत का भरम रखना था

मुझको बख्शा तो बोहोत, ग़म ही सही !
कुछ खुदा को भी सखावत का भरम रखना था

1 comment:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति!!

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