Sunday, August 29, 2010



मुकुराहटों में भी रुलाये मुझे
क्या सितम है जो जान पाए मुझे

अब भी तनहा कहीं भटकता हूँ
काश आवाज़ कोई आये मुझे

मुझको मेरा कोई पता तो मिले
कोई ऐसा हो ढूंढ लाये मुझे

मैं के जैसे किताब-ऐ-दर्द-ओ-अलम
वक़्त गुज़रा है मुस्कुराये मुझे

टूटती सांस भी अदा कर दूं
वो जो सीने से गर लगाए मुझे

तुमसे बस एक शिकायत ये रही
तुम कभी वक़्त ना दे पाए मुझे

बस नहीं थी तो बात वो ही ना थी
उसके पैग़ाम कई आये मुझे

मुस्कुराऊँ मैं तुम्हारे आंसू में
ये मोजेजाह भी अल्लाह कभी दिखाए मुझे

फिर बिछड़ना पड़े तुम्हें मिल कर
ज़िन्दगी यूँ ना फिर मिलाये मुझे

जा के कहदो ये उस सितमगर से
भूल पाए तो भूल जाये मुझे

Monday, October 05, 2009

जबके तुमको रो चुका


जबके तुझको रो चुका दिल सुकून पाने को है
लौट कर के दर्द-ऐ-दिल फिर वही आने को है

बे-तहाशा याद के तूफ़ान थे उठा किए
अब पडे खामोश हैं जब नाखुदा आने को है

हर शिकस्ता मोड़ पर दिल के टुकडे चुन चुके
अब न जाने जिंदगी का क्या मकाम आने को है

कब तलक बे-रब्त्गी और बे-रुखी पे रोएँ हम
एक दिल अपना ही क्या हर सज़ा पाने को है

फिर उफ्फक पर दूर तक खामोशियाँ सी छाई हैं
आसमान से फिर कोई क्या सानेहा आने को है

उम्र भर इक घुटन के साथ है जीना पड़ा
साँस आई भी तो अब जब जिंदगी जाने को है

लिल्लाह मुझको छोड़ कर न जाईये रुक जाईये
बेकरारी को किसी सूरत करार आने को है

इस तरह मंसूब थे कुछ रौशनी के सिलसिले
अब तो ये आलम के हर इक ख्वाब जल जाने को है

फिर खड़ा हूँ दिल लिए इक बेवफा के सामने
फिर तमन्ना-ऐ-सुकून ख़ाक हो जाने को है

बू-ऐ-गुल में फिर महक तेरी पनाहों की सी है
वो पुराना वक्त क्या फिर से पलट आने को है

दो क़दम चल कर ना जाने क्यूँ ठहर जाता हूँ मैं
कौन है जो साथ मेरे दूर तक आने को है

आरजू गुस्ताख फिर होने लगी है आजकल
दिल शिकस्ता होके भी फिर दगा खाने को है

इस कमनसीबी का भला अब करें तो क्या करें
आरजू मुरझाने को है और घटा छाने को है

Wednesday, August 26, 2009

जो गुल निगाह में महके


जो गुल निगाह में महके वो खार हो रहे

साए भी रौशनी के तलबगार हो रहे


तुमने कभी भी हमपे निगाहे करम न की

कितने भी हम तुम्हारे तलबगार हो रहे


दर्द-ओ-आलम से आगे कुछ भी न मिल सका

दिल के मुआमले सब बेकार हो रहे


मुद्दत के बाद भी खिले तो खार ही खिले

कहने को बाग़-ऐ-हसरत गुलज़ार हो रहे


किन किन उदास रातों का मैं तज़करा करूँ

तारे तुम्हारे हिज्र में अंगार हो रहे


शोलों से नफरतों की इक दिल था बुझ गया

अब क्या जो उन्हें भी अगर प्यार हो रहे


क़ैद-ऐ-ख्याल-ऐ-यार से फिर छूट न सके

नज़रें मिलाके हम तो गुनेहगार हो रहे


बैठे हैं मुद्दतों से यही जुस्तजू किए

शायद के बेवफा का दीदार हो रहे


इक उन्स जिसको त्तोड़ कर तुम खुश रहे सदा

हम आज तक उसी में गिरफ्तार हो रहे


क्या इस सियाह रात की कोई सेहर नहीं

मुद्दत से रौशनी के आजार हो रहे

Friday, August 07, 2009

मुझको वीरान अंधेरों में....


मुझको वीरान अंधेरों में पिन्हाँ रहने दो
अपनी हमदर्दी-ओ-उल्फत की अदा रहने दो

बारहा मुझसे मेरा हाल न पूछो अब तुम
दर्द अब दे ही दिया है तो दवा रहने दो

हंस दिया भी तो मेरी आँख में आंसू होंगे
मेरी आंखों में उदासी का नशा रहने दो

तुम खुशी से हर इक गाम पे कलियाँ चुनना
मुझको जज्बों के जनाजों में दबा रहने दो

पूछो न किस तरह से गुजरी है शाम-ऐ-हिज्र
आबशारों को निगाहों में थमा रहने दो

अपना एहसास मेरी जान पराया न करो
इक मेरे पास भी जीने की वजह रहने दो

बैठ जाओ मेरे पास मुझ ही में खो कर
और सदियों तक यूँ ही वक्त रुका रहने दो

अपनी जुल्फें रुख-ऐ-रोशन से हटाना न अभी
कुछ घड़ी और ज़माने पे घटा रहने दो

तोड़ कर रस्म-ऐ-जहाँ बाँहों में मेरी आए हो
खूबसूरत है बोहोत ख्वाब सजा रहने दो

मेरी उल्फत की निगाहों का भरम तो रखो
दिल को इनाम-ऐ-इबादत का गुमा रहने दो

Tuesday, August 04, 2009

कहो तो जिंदगी तुम पर लुटा दूँ


कहो तो जिंदगी तुम पर लुटा दूँ
तुम्हारे प्यार को क्यूँकर भुला दूँ

ज़रूरी है के मैं आंसू बहाऊँ
तुम्हें तनहाइयों में गर सदा दूं

अब इतना भी मुझे मायूस न कर
कहीं ख़ुद को तरस खा कर मिटा दूँ

घिरा हूँ मैं शिकस्ता कोशिशों में
उमर मैं किस तरह हंस कर बिता दूँ

बढे जाते हैं अब ग़म के अंधेरे
कहो तो इस दफा मैं घर जला दूँ

बड़े ही सख्त ये लम्हे गए हैं
क़यामत हो मैं इनको गर सुना दूँ

परस्तिश के लिए तुमको चुना है
कहो मुजरिम अगर मैं सर उठा दूँ

न हो जिन रास्तों पे साथ तेरा
क़दम उस राह पर क्यूँ कर बढ़ा दूँ

मैं मर जाऊं अगर जीना हो तुमबिन
यूँ ख़ुद को हाथ फैला कर दुआ दूँ

नही होते हो जब तुम पास मेरे
ये जी करता है हर मंज़र मिटा दूँ

अगर तुम साथ दो राह-ऐ-वफ़ा में
मैं पलकों से हर एक पत्थर हटा दूँ

Wednesday, June 24, 2009

नाला-ऐ-दिल बोहोत अदना है गो फसाने में


नाल-ऐ-दिल बोहोत अदना है गो फसाने में
हमको इक उम्र लगेगी तुम्हें सुनाने में

क़दम क़दम पे बोहोत दिल को अज़ीयातें दी हैं
रहे हैं फिर भी शिकस्ता तुम्हें भुलाने में

ये दो घड़ी की जो मुश्किल थी टटल गई होती
ज़रा सी देर न की तुमने भूल जाने में

मैं बारिशों से भी अश्कों की न बचा पाया
फलक को जिद सी रही आशियाँ जलाने में

किया था तुम पे भरोसा मगर तुमने
कोई कसर न उठाई है दिल दुखाने में

बुरा हुआ जो इस दिल पे मुश्किलें गुजरीं
गँवाए हमने सभी दोस्त आजमाने

मैं लम्स लम्स पिघलता रहा मानिंद-ऐ-शमा
मिटा के रख दिया खुदको वफ़ा निभाने में

परिस्तिशों का हमारी यहाँ सिला ये मिला
तमाशा बन गए संगदिल से दिल लगाने में

चले भी आओ के तुम बिन कोई कमी सी है
तुम्ही दो ढूंढता रहता है दिल ज़माने में

Sunday, June 14, 2009

हमको कुछ जुर्म-ऐ-मोहब्बत का भरम रखना था

हमको कुछ जुर्म-ऐ-मोहब्बत का भरम रखना था
अपनी मायूस इबादत का भरम रखना था

इस लिए हमने तुझे बज्म में सजदे न किए
दुनिया वालों की शिकायत का भरम रखना था

हम ही क्या दर्द-ऐ-जुरायत को निभाते जाएँ
कुछ तुम्हें भी तो मोहब्बत का भरम रखना था

तेरे बख्शे हुए अश्कों से सजा ली रातें
हमनफस हमको इनायत का भरम रखना था

बेवफा हमने तुझे याद किया है पहरों
दिल से मंसूब रिवायत का भरम रखना था

कोई शिकवा भी नही कोई शिकायत भी नही
तुमको लाचारी-ऐ-उल्फत का भरम रखना था

अपनी मांगी तुम्हें सार्री दुआएं दे दी
इस से जायेद क्या रफाकत का भरम रखना था

फूल चाहे थे हमें खार मिले हैं तुमसे
इक ज़रा तो मेरी चाहत का भरम रखना था

हमने तन्हाई में तेरी खुशबू को बिखेरे रखा
अपने एहसास की फितरत का भरम रखना था

चंद बचे रिश्तों को भी दुनिया से तो बख्शा न गया
कुछ इन्हें भी तो अदावत का भरम रखना था

हमने हर लफ्ज़ को आंखों से बोहोत चूमा है
तेरे हाथों की इबारत का भरम रखना था

मुझको बख्शा तो बोहोत, ग़म ही सही !
कुछ खुदा को भी सखावत का भरम रखना था