Sunday, May 10, 2009

गर हैं नही कुबूल तो लौटा दो मेरे सजदे


गर हैं नही कुबूल तो लौटा दो मेरे सजदे


हम ने माँगा to हमें कोई सहारा न मिला
पार ले जाता कोई ऐसा इशारा न मिला
दोस्त मिलते गए दाग-ऐ-जिगर देते गए
अजनबी तुम भी रहे कोई हमारा न मिला

तुमको आवाज़ बताओ मैं कहाँ तक देता
अपनी रुदाद-ऐ-जुनू और कहाँ तक कहता
और जो चाहता तुम्हें शायद तो मैं मर जाता
दर्द जो तुमने दिए थे मैं कहाँ तक सहता

मैंने रातों के अंधेरों में पुकारा तुमको
मैंने सुबह के उजालों में पुकारा तुमको
मेरी आवाज़ की शिद्दत में वो गर्मी ही न थी
मैंने सेहरा मैं सरबो में पुकारा तुमको

मेरी उम्मीद-ऐ-वफ़ा, शान-ऐ-इबादत तुम थे
मेरी दुनिया में फ़क़त एक मोहब्बत तुम थे
तुम ही आगाज़ थे मेरा, तुम ही अंजाम-ऐ-हयात
मेरी फरयाद-ऐ-वफ़ा, मेरी शिकायत तुम थे

मैंने सीने से तेरे ग़म को लगाये रखा
तुझको दुनिया की निगाहों से छुपाये रखा
मुश्किलें कौन सी ऐसी थी जो न मुझ पे रहीं
मैंने साँसों में तुझे अपनी बसाये रखा

तल्खी-ऐ-नाकामी-ऐ-हयात की शिकायत कभी न की
सख्तियाँ बढती गई और बढे मेरे सजदे


काँप उठे हैं अब तो मेरे दस्त-ऐ-तलब

गर हैं नही कुबूल तो लौटा दो मेरे सजदे

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