Wednesday, August 26, 2009

जो गुल निगाह में महके


जो गुल निगाह में महके वो खार हो रहे

साए भी रौशनी के तलबगार हो रहे


तुमने कभी भी हमपे निगाहे करम न की

कितने भी हम तुम्हारे तलबगार हो रहे


दर्द-ओ-आलम से आगे कुछ भी न मिल सका

दिल के मुआमले सब बेकार हो रहे


मुद्दत के बाद भी खिले तो खार ही खिले

कहने को बाग़-ऐ-हसरत गुलज़ार हो रहे


किन किन उदास रातों का मैं तज़करा करूँ

तारे तुम्हारे हिज्र में अंगार हो रहे


शोलों से नफरतों की इक दिल था बुझ गया

अब क्या जो उन्हें भी अगर प्यार हो रहे


क़ैद-ऐ-ख्याल-ऐ-यार से फिर छूट न सके

नज़रें मिलाके हम तो गुनेहगार हो रहे


बैठे हैं मुद्दतों से यही जुस्तजू किए

शायद के बेवफा का दीदार हो रहे


इक उन्स जिसको त्तोड़ कर तुम खुश रहे सदा

हम आज तक उसी में गिरफ्तार हो रहे


क्या इस सियाह रात की कोई सेहर नहीं

मुद्दत से रौशनी के आजार हो रहे

3 comments:

  1. बहुत बेहतरीन गज़ल!

    ReplyDelete
  2. जो गुल निगाह में महके वो खार हो रहे
    साए भी रौशनी के तलबगार हो रहे

    सुन्दर पंक्तियाँ जाकिर जी।

    ReplyDelete
  3. जो गुल निगाह में महके वो खार हो रहे

    साए भी रौशनी के तलबगार हो रहे
    बहोत ख़ुब!!!

    ReplyDelete